શુક્રવાર, 23 નવેમ્બર, 2012
ગુરુવાર, 22 નવેમ્બર, 2012
બુધવાર, 21 નવેમ્બર, 2012
મંગળવાર, 20 નવેમ્બર, 2012
जय रुद्र महालय (खण्ड काव्य)
प्राक्कथन
जय रुद्र महालय (खण्ड काव्य)
डॉ॰ ओ॰ पी॰ व्यास गुना म॰ प्र॰ द्वारा रचित इस पुस्तक मे औदीच्य ब्रम्हाण समाज के गोरव सिद्धपुर गुजरात का रूद्र महल के निर्माण और विध्वंस की गाथा जो औदिच्य ब्राम्हणों की उत्त्पति की गाथा भी हे, इस काव्य मय वर्णन में मिलती हे|
10 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध मे गुजरात की राजधानी पाटन थी| महाराजा मूलराज सोलंकी प्रतापी राजा हुए थे | सिद्धपुर (श्री स्थल) प्राचीन सिद्धपीठ थी| महाराज मूलराज ने अपने मातुल (मामा) सामंत सिंह का वाढ कर पाटण की राजगद्दी प्राप्त की थी| सम्पूर्ण भारत के सर्वाधिक एश्वर्यशाली राज्य कायम किया| व्रद्धावस्था में पश्चाताप वश "रुद्र महालय" जिसमें एक सहस्त्र शिव लिंगो वाला एक सहस्त्र मंदिरों का विशाल रुद्र महालय या रुद्र की माला के समान मंदिर बनवाने का बनाने का का विचार उनके मन मे आया |
इस संबद्ध में निम्न पद प्रसिद्ध हे |
"सुत सोलंकी वंशनों, कपटेलीध्यों राज, रुद्रमाल आरम्भियों, पातक टलवावास|
संबत अग्यार से ओगणी से,सोलंकी सुत जाण,रुद्रमाल स्थापना माघ मास परमाण|
क्रष्ण पक्ष ने चतुर्दशी, वार सोम निरधार, शंकर सधरे पुणिया। नाम शंभू जुगधार|
सिद्धपुर पातक नाशनी पुण्य सलिला सरस्वती नदी के पावन तट पर स्थित हे| महर्षि कर्दम की तपोभूमि हे| जगन्माता देवहुति का मुक्ति स्थान हे| सांख्ययोगाचार्य कपिल मुनि का जन्म स्थान हे| यहीं सरस्वती तट पर महर्षि दाधिचि का आश्रम हे| इस स्थान पर महाराजा मूलराज ने तत्कालीन उत्तर भारत या उदीच दिशा से 1037 अति उच्च विद्वान ब्राम्हणों को बुलवाकर सिद्धपुर में सरस्वती के तट पर रुद्रयाग (रुद्र यज्ञ) करवाया गया था| ओर मंदिर निर्माण प्रारभ किया था| ये ही सब अति विद्वान उत्तर दिशा से आने के कारण उदीच कालतर में सहस्त्र औदीच्य ब्राम्हणों के नाम से जाने गए| स्मरणीय हो की पूर्व में सभी ब्राम्हण ऋषियों के नाम से जाने जाते रहे थे पर जेसे जेसे ब्राम्हणों की संख्या व्रद्धि होती गई आदिगुरु शंकराचार्य जी ने देश-भेद स्थान भेद आदि द्वारा कान्यकुब्ज/सरयुपारीय आदि किया गया| इसी कड़ी में आगे औदीच्य ब्राम्हण भी कहलाए गए|
इस मंदिर का पूर्ण निर्माण चोथी पीड़ी में महाराज जयसिंह ने किया| इस समय महाराज जयसिंह द्वारा प्रजा का ऋण माफ किया गया ओर इसी अवसर पर नव संबत चलवाया जो आज भी सम्पूर्ण गुजरात मे चलता हे| ई॰ सन 2012 वर्ष मेँ गुजराती संबत 2058 [૨૦૫૮] हे| निरतर
इस रुद्र महालय में एक हजार पाँच सो स्तभ थे | माणिक मुक्ता युक्त एक हजार मूर्तियाँ थीं| इस पर तीस हजार स्वर्ण कलश थे| जिन पर पताकाएँ फहराती थी| रुद्र महालय में पाषाण पर कलात्मक "गज" एवं "अश्व" उत्कीर्ण थे| अगणित जालियाँ पत्थरो पर खुदी थीं|
कहा जाता हे यहाँ सात हजार धर्मशालाएँ थीं| इनके रत्न जटित द्वारों की छटा निराली थी | मध्य में एकादश रुद्र के एकादश मंदिर थे| वर्ष 995 में मूलराज ने रुद्रमहालय की स्थापना की थी | वर्ष 1150(ई॰स॰1094) में सिद्धराज ने रुद्र महालया का विस्तार करके "श्री स्थल" का "सिद्धपुर" नामकरण किया था|
महाराज मूलराज महान शिव भक्त थे| अपने परवर्ती जीवन में अपने पुत्र चावंड को राज्य सोप कर श्री स्थल (सिद्धपुर) में तपश्चर्या में व्यतीत किया| वहीं उनका स्वर्गवास हुआ|आज इस भव्य ओर विशाल रुद्रमहल को खण्डहर केआर रूप मे देखा जा सकता हे| विभिन्न आततायी आक्रमण कारी लुटेरे बादशाहों ने तीन बार इसे तोड़ा ओर लूटा| एक भाग में मस्जिद बना दी| इसके एक भाग को आदिलगंज (बाज़ार) का रूप दिया इस बारे में वहाँ फारसी ओर देवनागरी में शिलालेख हे|
जय रुद्र महालय (खण्ड काव्य)
डॉ॰ ओ॰ पी॰ व्यास गुना म॰ प्र॰ द्वारा रचित इस पुस्तक मे औदीच्य ब्रम्हाण समाज के गोरव सिद्धपुर गुजरात का रूद्र महल के निर्माण और विध्वंस की गाथा जो औदिच्य ब्राम्हणों की उत्त्पति की गाथा भी हे, इस काव्य मय वर्णन में मिलती हे|
10 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध मे गुजरात की राजधानी पाटन थी| महाराजा मूलराज सोलंकी प्रतापी राजा हुए थे | सिद्धपुर (श्री स्थल) प्राचीन सिद्धपीठ थी| महाराज मूलराज ने अपने मातुल (मामा) सामंत सिंह का वाढ कर पाटण की राजगद्दी प्राप्त की थी| सम्पूर्ण भारत के सर्वाधिक एश्वर्यशाली राज्य कायम किया| व्रद्धावस्था में पश्चाताप वश "रुद्र महालय" जिसमें एक सहस्त्र शिव लिंगो वाला एक सहस्त्र मंदिरों का विशाल रुद्र महालय या रुद्र की माला के समान मंदिर बनवाने का बनाने का का विचार उनके मन मे आया |
इस संबद्ध में निम्न पद प्रसिद्ध हे |
"सुत सोलंकी वंशनों, कपटेलीध्यों राज, रुद्रमाल आरम्भियों, पातक टलवावास|
संबत अग्यार से ओगणी से,सोलंकी सुत जाण,रुद्रमाल स्थापना माघ मास परमाण|
क्रष्ण पक्ष ने चतुर्दशी, वार सोम निरधार, शंकर सधरे पुणिया। नाम शंभू जुगधार|
सिद्धपुर पातक नाशनी पुण्य सलिला सरस्वती नदी के पावन तट पर स्थित हे| महर्षि कर्दम की तपोभूमि हे| जगन्माता देवहुति का मुक्ति स्थान हे| सांख्ययोगाचार्य कपिल मुनि का जन्म स्थान हे| यहीं सरस्वती तट पर महर्षि दाधिचि का आश्रम हे| इस स्थान पर महाराजा मूलराज ने तत्कालीन उत्तर भारत या उदीच दिशा से 1037 अति उच्च विद्वान ब्राम्हणों को बुलवाकर सिद्धपुर में सरस्वती के तट पर रुद्रयाग (रुद्र यज्ञ) करवाया गया था| ओर मंदिर निर्माण प्रारभ किया था| ये ही सब अति विद्वान उत्तर दिशा से आने के कारण उदीच कालतर में सहस्त्र औदीच्य ब्राम्हणों के नाम से जाने गए| स्मरणीय हो की पूर्व में सभी ब्राम्हण ऋषियों के नाम से जाने जाते रहे थे पर जेसे जेसे ब्राम्हणों की संख्या व्रद्धि होती गई आदिगुरु शंकराचार्य जी ने देश-भेद स्थान भेद आदि द्वारा कान्यकुब्ज/सरयुपारीय आदि किया गया| इसी कड़ी में आगे औदीच्य ब्राम्हण भी कहलाए गए|
इस मंदिर का पूर्ण निर्माण चोथी पीड़ी में महाराज जयसिंह ने किया| इस समय महाराज जयसिंह द्वारा प्रजा का ऋण माफ किया गया ओर इसी अवसर पर नव संबत चलवाया जो आज भी सम्पूर्ण गुजरात मे चलता हे| ई॰ सन 2012 वर्ष मेँ गुजराती संबत 2058 [૨૦૫૮] हे| निरतर
इस रुद्र महालय में एक हजार पाँच सो स्तभ थे | माणिक मुक्ता युक्त एक हजार मूर्तियाँ थीं| इस पर तीस हजार स्वर्ण कलश थे| जिन पर पताकाएँ फहराती थी| रुद्र महालय में पाषाण पर कलात्मक "गज" एवं "अश्व" उत्कीर्ण थे| अगणित जालियाँ पत्थरो पर खुदी थीं|
कहा जाता हे यहाँ सात हजार धर्मशालाएँ थीं| इनके रत्न जटित द्वारों की छटा निराली थी | मध्य में एकादश रुद्र के एकादश मंदिर थे| वर्ष 995 में मूलराज ने रुद्रमहालय की स्थापना की थी | वर्ष 1150(ई॰स॰1094) में सिद्धराज ने रुद्र महालया का विस्तार करके "श्री स्थल" का "सिद्धपुर" नामकरण किया था|
महाराज मूलराज महान शिव भक्त थे| अपने परवर्ती जीवन में अपने पुत्र चावंड को राज्य सोप कर श्री स्थल (सिद्धपुर) में तपश्चर्या में व्यतीत किया| वहीं उनका स्वर्गवास हुआ|आज इस भव्य ओर विशाल रुद्रमहल को खण्डहर केआर रूप मे देखा जा सकता हे| विभिन्न आततायी आक्रमण कारी लुटेरे बादशाहों ने तीन बार इसे तोड़ा ओर लूटा| एक भाग में मस्जिद बना दी| इसके एक भाग को आदिलगंज (बाज़ार) का रूप दिया इस बारे में वहाँ फारसी ओर देवनागरी में शिलालेख हे|
वर्तमान में रुद्रमहल के पूर्व विभाग के तोरण द्वार चार शिव मंदिर ओर ध्वस्त सूर्य कुण्ड हे | यह पुरातत्व विभाग के अधीन हे|
प्रस्तुत खंड काव्य में इस सबका सारा विवरण रोचक ओर काव्यात्मक किया गया हे| सिद्धपुर मे सम्पन्न हुए सहस्त्राब्दी महोत्सव के अवसर पर जगदगुरु शंकराचार्य श्री श्री निरंजन देव तीर्थ, गो भक्त शंभू महाराज, तत्कालीन शिक्षा मंत्री हेमा बहन आचार्य , गृह मंत्री प्रबोध भाई रावल श्री रश्मि त्रिवेदी [कोमुदी फिल्म निर्माता मुंबई],पुष्पेंद्र भट्ट बलवंत भाई, आदि अनेक विद्वानो ओर विशाल जन समूह के सम्मुख इस का वाचन लेखक डॉ ओ॰पी॰ व्यास गुना के द्वारा किया गया था| जिसे एक साठा बड़ी करतल ध्वनि से सराह गया ओर बाद मे लगभग सभी वक्ताओ ने प्रशंसा की|
इस हेतु डॉ ओ पी व्यास को विशेष रूप से सम्मानित भी किया गया था |
डॉ मधु सूदन व्यास
एम आई जी 4/1 प्रगति नगर उज्जैन म।प्र।
औदीच्य समाज के विविध पत्र एवं पत्रिकाएं ।
गुजरात से आगमन के पश्चात औदीच्य समाज उत्तर भारत, पंजाब, दिल्ली, करांची लाहौर, से लेकर राजस्थान मालवा, निमाड, मध्यप्रदेश, बिहार आदि अनेक स्थानों पर फैल गया। समाज को संगठित करने के लिए देश के विभिन्न भागों में औदीच्य समाज की अनेक पत्र पत्रिकाओं को प्रकाशन हुआ। जिनमें से अनेक पत्र पत्रिकाएं वर्तमान में नहीं है। फिर भी समाज की गतिविधियों के विकास में इनका सराहनीय सहयोग रहा । स्वनाम धन्य पं; राधेश्याम जी व्दिवेदी जी ने औदीच्य समाज की प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं की महत्वपूर्ण जानकारी एकत्रित की थी, समस्त प्राप्त जानकारियों को संकलित कर प्रस्तुत किया जा रहा हे। इन निम्न के अतिरिक्त यदि किसी अन्य पत्र की जानकारी किसी से भी हमको प्राप्त होने पर यहाँ स्थान दिया जा सकेगा। कृपया अवगत कराने का कष्ट करें।
1' '' उदीच्य हितेच्छु '' का जन्म अहमदाबाद में चैत्र 1935 में हुआ था ,इसका प्रकाशन मासिक होता था । संपादक श्री हीरालाल बापालाल जी मेहता थे । 2; ''गुर्जर समाचार '' का जन्म मथुरा में आश्विन 1943 में हुआ था । प्रकाशन मासिक था। संपादक थे श्री गंगाराम जी पण्डया । 3. ''औदीच्य हितेच्छु'' का जन्म अहमदाबाद में संवत 1948 में होकर प्रकाशन मासिक होता था । इसके संपादक थे श्री बुलाखीराम नारायण जी । 4. ''गुर्जर हितकारी'' का जन्म मथुरा में चैत्र संवत 1954 में हुआ था। इसका प्रकाशन त्रैमासिक होता था।इसके संपादक थे श्री गंगाराम जी पंण्डया । 5.''पंच पत्रिका'' का जन्म काशी में कार्तिक 1960 में हुआ था ,प्रकाशन मासिक ,संपादक श्री बलदेवदत्त ठाकर 6.''गुर्जर ब्राहमण'' का जन्म संवत 1965 में अहमदाबाद में हुआ था। संपादक थे श्री हरजीवन त्रिभुवन त्रिपाठी। 7' ''औदीच्य मित्र'' जन्म संवत 1965 अहमदाबाद । सपादक पं; रघुनाथ शर्मा लींबडी । 8.'' औदी्च्य प्रभाकर'' जन्म संवत 1967 संपादक श्री मणिशंकर रणछोड जी व्यास सूरत से प्रकाशन । 9.'' उदीच्य जीवन'' जन्म संवत 1975।द्य तंत्री श्री हरिशंकर औघडभाई विध्यार्थी । कार्यालय 15 पारसी बाजार फोर्ट बम्बई । 10.''उदीच्य''वैशाख सुदी 1 संवत 1976 से संपादक श्री शंकरलाल गोविन्द जी त्रिवेदी,फोकलवाडी भूलेश्वर बम्बई से प्रकाशित । 11. '' औदीच्य प्रकाश ''का जन्म कलसार जिला भावनगर में आषाढ संवत 1977 में हुआ। प्रकाशन मासिक। संपादक श्री नारायण जी गोबर्धनराम कलसारकर । 12.'' उदीच्य अभ्यूदय''संवत 1978 । बम्बई से । संपादक श्री गंगाराम क्रपाराम जी शुक्ल । 13.''औदीच्य''जन्म संवत 1979 प्रकाशन रायपुर अहमदाबाद । सपादक श्री ईश्वरलाल कालीदास व्यास। 14.'' उदीच्य युवक''जन्म चैत्र संवत 1979 प्रकाशन बम्बई से। संपादक सूरजराम मंछाराम भटट। 15.'' युवक'' जन्म संवत 1980 संपादक श्री मणीशंकर ईश्वरलाल भटट । 16.''श्री सिध्दरूद्र'' जन्म संवत 1980 संपादक श्री जगन्नाथ आत्माराक गांधी चौक आमोद। 17.''औदीच्य मुकुर''संवत 1981 में श्री गणपति शंकर नारायण जी देसाई व्दारा संपादित प्रकाशन बम्बई से। 18.''औदीच्य ब्राहमण'' जन्म करनाल पंजाब। श्रावण संवत 1981।मासिक।संपादक श्री रामदत्त व्यास। 19.''औदीच्य कर्त्तव्य''जन्म कराची फरवरी 1925। मासिक।संपादक मूलशंकर यादव जी व्यास। 20.''औदीच्य सन्देश''जन्म अम्रतसर मार्च 1932 भाषा उर्दू एवं हिन्दी।संपादक जगतराम चभाल और जानकीनाथ डोरीवाले । 21.''हितवर्धन''जन्म बम्बई चैत्र संवत 1988। मासिक।संपादक रणछोडलाल घनश्यामलाल जानी। 22.''औदीच्य ज्योति'' जन्म बडोदा कार्तिक संवत 1989।मासिक।संपादकश्री हरगोविन्द रेवाशंकर मेहता। 23.''औदीच्य पत्रिका''जन्म सूरत जनवरी 1933।मासिक।संपादकश्री नानूभाई लालजी भाई व्यास। 24.''औदीच्य संगठन''जन्म अम्रतसर जनवरी 1933। मासिक।संपादक रमेशराय दर्द। 25.''आहुति'' जन्म करांची संवत 1991। मासिक।संपादक मगनलाल लाभशंकर शुक्ल । 26.''उदय पत्रिका'' जन्म बम्बई जनवरी 1994 मासिक। संप9ादक श्री शंकरलाल कल्याण जी व्यास। 27.''औदीच्य उदय'' जन्म बम्बई मार्च 1934 मासिक। संपादक श्री भानूशंकार मच्छाराम याज्ञिक। 28.''औदीच्य इन्कलाब'' जन्म 1934।मासिक।संपादक श्री नरभेशंकर एस पाणेरी । बाद में औदीच्य क्रान्ति। 29.''प्रकाश'' जन्म राजकोट में 1937 में हुआ।त्रैमासिक।संपादक श्री सेवक जी । 30.''ब्राहमण जगत'' जन्म बम्बई। जुलाई 1938। मासिक। संपादक श्री मगलाल जोशश्ी ताणसा कर। 31.''तणखा'' जन्म अक्टूम्बर 1938। मासिक। संपादक श्री शान्तिलाल ठाकर तथा श्री लक्ष्मीप्रसाद आचार्य। 32.'' औदीच्य सेवक''जन्म कार्तिक सं;1995 करांची से मासिक। संपादक श्री प्रभुलाल राजाराम जी शुक्ल। 33."औदीच्य ब्राहमण समाज (समाचार मासिक पत्र)प्रकाशक एवं संपादक डॉ.ओ.पी.व्यास नई सड़क गुना म.प्र. 1977 से लगभग पाँच वर्ष तक गुना जिला गुना से प्रकाशित होता रहा। इन पत्रों अतिरिक्त बढवाण से '''औदीच्य '' कानपुर से '' औदीच्य किशोर'' बाटवां से '' औदीच्य पत्रिका'6 का प्रकाशन भी हुआ। वर्तमान में भी अनेक पत्र पत्रिकायें निकल रही है। अहमदाबाद से निकलने वाली पत्रिका औदच्य प्रकाश के 17 हजार से अधिक सदस्य हैं। एकमात्र '' औदीच्य बन्धु ऐसी सामाजिक हिन्दी पत्रिका है जो वसंत पंचमी संवत 1983 सन 1926 से निरंतर प्रकाशित हो रही है। इसके जन्मदाता स्वनाम धन्य बाबा श्री शिवप्रकाश जी व्दिवेदी महाराज मथुरा थे। ज्यो;श्री चन्द्रप्रकाश जी मथुरा ने प्रारंभ में दो वर्ष तक इसका संपादन किया। श्री चतुर्भुज पंण्डया कलकत्ता 3 वर्ष तक काशी से तथा श्री बलदेवप्रसार जी शर्मा अजमेर एक वर्ष तक इसके संपादक रहे । इसके बाद पं; राधेश्याम जी व्दिवेदी औदीच्य बन्धु का संपादन किया। बन्धु मथुरा से प्रकाशित होता था। इसके पश्चात सन1956 तक डा.गोवर्धननाथ जी शुक्ल ने संपादन किया तथा डा.विश्वनाथ शुक्ल सह संपादक रहे । अक्टूम्बर 1956 से औदीच्य बन्धु इन्दौर से प्रकाशित होने लगा। श्री पं; गोपीवल्लभ जी उपाध्याय संपादक रहे । सन 1967 में श्री श्यामूजी सन्यासी संपादक बने! आपके इलाहाबाद जाने के कारण 3 वर्ष तक श्री रावल विश्वनाथ जी शर्मा ने प्रबंध संपादक के रूप में कार्यभार संभाला बाद में श्री श्यामू जी 1 जनवरी 1970 से पुन. संपादक बने । आपके पश्चात डा. मदनमोहन जी दुबे ने 20 वर्ष से अधिक संपादक का भार वहन किया तथा डा.जयाबेन शुक्ल सहयोगी रही । श्री गोर्धनदास जी मेहता भोपाल एवं श्री लक्ष्मीनारायण जी उपाध्याय,पं.भीमशंकर जी व्दिवेदी ,डा.रमणीकराय पण्डया भी औदीच्य बन्धु के संपादक रहे । डा. ओमनारायण जी पण्डया उज्जैन भी काफी समय तक संपादक रहे । वर्तमान में औदीच्य बन्धु के संपादक डा. ओम ठाकुर इन्दौर एवं सह संपादक श्री उध्दव जोशी ,श्री मुकेश जोशी उज्जैन तथा डा.इन्दु तिवारी इन्दौर है। औदीच्य बन्धु के प्रबन्ध संपादक श्री मनमोहन जी ठाकर इन्दौर हैं। "औदीच्य बंधु" का डिजिटल प्रकाशन भी वर्ष जनवरी 2012 से निरंतर डॉ मधू सूदन व्यास उज्जैन द्वारा किया जा रहा हे। यह http://audichyabandhu. राजस्थान से ेभी औदीच्य संदेश तथा अन्य पत्रिकाऐं प्रकाशित हो रही है। औदीच्य संदेश के संपादक श्री कैलाशनाथ जी व्दिवेदी रहे । देवास से श्री जगदीश शर्मा '' औदीच्य समाज '' पत्र प्रकाशित कर रहे है । '''''''''''''''''''''''''''''' इस साईट पर उपलब्ध लेखों में विचार के लिए लेखक/प्रस्तुतकर्ता स्वयं जिम्मेदार हे| इसका कोई भी प्रकाशन समाज हित में किया जा रहा हे|सभी समाज जनों से सुझाव/सहायता की अपेक्षा हे| |
Posted: 19 Nov 2012 08:01 PM PST
उज्जैन 19 नवम्बर 2012
अखिल भारतीय औदीच्य महासभा म.प्र. की उज्जैन जिला शहर एवं ग्रामीण शाखा के तत्वावधान मेँ आयोजित होने जा रहे श्री गोविद माधव जयंती समारोह का समस्त स्वजाति बंधुओं को आमंत्रण अध्यक्ष द्वय शहर एवं ग्रामीण प.सोहन भट्ट एवं पटेल सत्यनारायन त्रिवेदी द्वारा दिया गया हे। महिला संगठन युवा शाखा द्वारा भी सभी परिजनो से उतसह पूर्वक शामिल होने का आग्रह किया गया हे। चल समारोह के पश्चात समस्त जाती बंधुओ को सह भोज, प्रशाद मेँ भी सम्मलित होने का आग्रह किया गया हे। पूरा विवरण देखें प्रपत्र संलग्न। ============================== इस साईट पर उपलब्ध लेखों में विचार के लिए लेखक/प्रस्तुतकर्ता स्वयं जिम्मेदार हे| इसका कोई भी प्रकाशन समाज हित में किया जा रहा हे|सभी समाज जनों से सुझाव/सहायता की अपेक्षा हे| |
इतिहास औदिच्य ब्राह्मण/रचनात्मक
Ruद्र महालय खंड काव्य
लेबल: इतिहास औदिच्य ब्राह्मण/रचनात्मक
ॐ
"जय गोविन्द माधव"
औदिच्य बंधुओ का गोरव सिद्धपुर गुजरात का रूद्र महल के निर्माण और विध्वंस की गाथा जो औदिच्य ब्राम्हणों की उत्त्पति की गाथा भी हे ,इस काव्य मय वर्णन में मिलती हे| यह पड़ने योग्य हे| रूद्र महालय
खंड काव्य
आभार
भारतीय संसक्रति में "शिव" एवं ब्राम्हण दोनों का शीर्षस्थ स्थान हे। शिव को महादेव एवं ब्राम्हण को भूमिदेव की संज्ञा से अलंकरत किया गया हे| भूमिदेव ब्राम्हण में भी शीर्षस्थ सुशोभित– औदीच्यब्राम्हण हे| औदीच्यों के इष्टदेव "रुद्र" का प्रतिरूप –रुद्र महाराज | इस क्रम से इस प्रतिक्रम मुख्य "सूर्य" प्रतिपादित हे| रुद्र महालय के भग्नावशेष औदीच्य ब्राम्हण की स्थिति के ही प्रतिरूप हे, पर बात भिन्न हे की यह कटु सत्य किसी के ह्रदय में टीस उत्पन्न करता हे|
आज औदीच्य ब्राम्हण का ध्यान इस सिद्धपीठ की ओर आकर्षित हुआ हे | एसा प्रतीत होता हे की इस पवित्र पीठ के दुर्भाग्य रूपी कम देव को भस्म करने के लिए स्वयं शंकर ने तीसरा नेत्र खोला हे|
ज्ञातीय बंधु रुद्र महालय के इतिव्रत्त, वेभव, एवं पाटन से परिचित हो सकें, इस हेतु मेने यह लघु प्रयास किया हे| इस रचना के अनुकूल मनोव्रति बनाने में एवं ज्ञान का स्तर उच्च स्थिति में लाने में, सिद्धपुर निवासी श्री दशरथ लालजी शुक्ल, श्री प्रेम वल्लभ जी शर्मा, अरुण प्रसाद जी त्रिवेदी का विशेष सहयोग रहा हे| इसके साथ ही श्री स्थल प्रकाश, ब्रम्हाण उत्पत्ति मार्तण्ड, औदीच्य प्रकाश {महुआ से प्रकाशित} औदीच्य बंधु , औदीच्य संदेश, गुजरात के गोरव ओरपाटन की प्रभुता [लेखक के॰एम॰मुंशी] , 'सिद्धराज' [मेथली शरण गुप्त] , 'सोना ओर खून' [आचार्य चतुरसेन]. का सहयोग लियाहे| प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता वल्लभ विध्यानगर निवासी श्री अम्रत वसंत पण्ड्या, पं॰ राधेश्याम द्विवेदी एवं कमालगंज फरुखाबाद निवासी श्री स्व पं हरीशंकर जी दवे, उदयपुर के श्री पं भीमशंकर जी , बंदायु के डॉ गंगा सहाय शर्मा, ओर डॉ गोवर्धन नाथ शुक्ल अलीगढ़ वि॰विध्या॰ का भी विशेष सहयोग रहा हे|
उक्त ग्रंथ के लिखने मे उपरोक्त के अतिरिक्त जाने-अनजाने अनेक व्यक्तियों का सहयोग भी रहा मेँ उनका आभारी हूँ|
डॉ॰ ओ॰ पी॰ व्यास
औदीच्य ब्राहमण संन्दर्भ - इण्डिया आफिस लायब्रेरी लन्दन से प्रकाशित सूची ग्रन्थो में। लेबल: इतिहास औदिच्य ब्राह्मण, विशेष लेख
औदीच्य ब्राहमण संन्दर्भ - इण्डिया आफिस लायब्रेरी लन्दन से प्रकाशित सूची ग्रन्थो में।
लेबल: इतिहास औदिच्य ब्राह्मण, विशेष लेख
औदीच्य ब्राहमण संन्दर्भ - इण्डिया आफिस लायब्रेरी लन्दन से प्रकाशित सूची ग्रन्थो में।
उद्धव जोशी।
संस्क्रत साहित्य का भण्डार विश्व साहित्य की तुलना में अति व्यापक है। संस्क्रत साहित्य की इस विशाल राशि की रक्षा के लिए समय समय पर मूल ग्रन्थों की पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपियां मूल रचनाकारों , तत विषयों के विव्दानों , व्यावसायिक लेखकों, सन्यासियों, जैन मुनियों आदि ने समय समय पर संपादित की है।
संस्क्रत साहित्य की पाण्डूलिपियां भी लाखों में है। ऐसी ही पाण्डुलिपियां सुरक्षा भण्डारों में पूना का भण्डारकर प्राच्य शोध संस्थान, बडोदरा का गायकवाड प्राच्य ग्रन्थ शोध संस्थान, एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता, मुम्बई एवं लन्दन , सिंधिया ओरियन्टल शोध संस्थान विक्रम विश्वविध्यालय उज्जैन, अडयार प्राच्य ग्रंथ संग्रहालय चेन्नई, सरस्वती महल प्राच्य ग्रन्थ संग्रहायल सम्पूर्णानन्द विश्वविध्यालय वाराणस प्राच्य ग्रन्थ संग्रहालय पाट, जैसलमेर, त्रिवेन्द्रम , मॅसूर आदि देश के प्रसिध्द संस्थान है । विदेशों में जहां पर सस्क्रत पाण्डुलिपियों के संग्रहालय है उनमें दरबार लायब्रेरी काठमाण्डू नेपाल, आक्सफोर्ड विश्वविध्यालय लन्दन, एवं इंडिया आफिस संस्क्रत प्राच्य संग्रहालय लन्दन आदि विख्यात संस्थाऐं हैं।
यहां यह उल्लेखनीय है कि ग्रन्थों की प्रतिलिपिकर्ताओं के रूप में ब्राहम्ण जाति का वर्चस्व द्रष्टिगोचर होता है तथापि अनेक प्रमाण हैं जो अन्य जातियों की इस प्रव्रत्ति की और संकेत करते हैं । ब्राहमणो व्दारा निर्मित पाण्डुलिपियों में भी कई विशेषताओं के साथ कहीं कहीं यह तथ्य भी उदघाटित होता है कि उन्होने अपनी उपजाति की पहचान भी लिखी है जैसे नागर,मोढ चतुर्वेदी सारस्वत, औदीच्य आदि ।
यहां ब्राहम्णों की उपजाति औदीच्य ब्राहमणों व्दारा प्रतिलिपिक्रत पाण्डुग्रन्थों का परिचय उपस्थापित किया गया है जो इण्डिया आफिस लायब्रेरी लन्दलन से प्रकाशित सूची ग्रन्थों में उपलब्ध है। इन संदर्भो का चयन उक्त संस्था व्दारा प्रकाशित सात खण्डों के आधार पर किया गया है। प्रथम खण्ड में औदीच्य ब्राहमणों से संबंधित तीन संदर्भ प्राप्त होते हैं । ये तीनों वेद और वेदांगों से जुडे हूए हैं। प्रथ्ाित औदीच्य उल्लेख जिस ग्रन्थ पर हुआ है वह कर्मकाण्ड का है। इस ग्रन्थ का नाम उपग्रन्थ सूत्र है। उक्त ग्रन्थ में सामवेद से की जाने ेकवेाली धर्म विधियों का विवेचन हुआ है। इसमें 32 पत्र है। यह पाण्डुलिपि देवनागरी में लिपिबध्द है। प्रत्येक पत्र में 9 पक्तियां है। ग्रन्थ समाप्ति पर लिपिकर्ता ने अपने स्थान, संवत, मास, वार , उपजाति एवं स्वयं का नाम इस प्रकार प्रकाशित किया है।
---- संवत 1486 वर्षे भाद्रपदवादि। गुरावध्येह श्री कर्षढिकास्थों,उदच्ज्ञातीय पंडित लक्ष्मीधरेण लिखिमिंद ।। श्रुभंभ्वतु।।
व्दितिय पाण्डुग्रंथ् कात्यायन श्रौत पर भाष्य है। यह भाष्य सहस्त्र औदीच्य जाति के प; महादेव व्दिवेदी के व्दारा लिखा गया है। इसमें अंकित संवत की संख्या से ज्ञात होता है कि ये सन 1676 में लिखा गया था । यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण होगा कि यह ग्रन्थ मूल लेखक के व्दारा लिखी गई पाणुलिपि है।
इति सहस्त्रौदीच्य ज्ञाती व्दिवेदी महादेव क्रत कात्यायन सूत्र भाष्ये व्दितीयाध्याय.।।/ संवत सप्तदशत्रयस्त्रिंशव्दर्षे श्रावण क्रष्ण त्रतियां सौ महादेवने लिखितमिदम ।। इ;आ;ला;ंसूची ग्रन्थ प्रथम प्रष्ठ 65 ।
प्रथम खण्ड में ही त्रतीय औदीच्य सन्दर्भ जहां प्राप्त होता है, उससे स्पष्ट है कि ओदीच्य ब्राहमण ग्रन्थों के संग्रह करने में भी अग्रणी थे । निघण्टु निर्वचन जो निघण्टु पर भाष्य है कि पाण्डुलिपि उदीच्य जातिय पीताम्बर नामक ब्राहम्ण ने की थी। यह ग्रन्थ उनकी संपत्ति था ।
उदीच्यज्ञातीयपीतांबरस्य निघण्टुनिर्वचनपुस्तकमस्ति ।। इ;अ;ल;सं;सूची ग्रन्थ प्रथम प्र;152
इण्डिया आफिस लायब्रेरी के खण्ड व्दितीस के सूची ग्रन्थ में लिंगानुशासन की पाण्डुलिपियों में एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत होता है कि मथुरानाथ नामक औदीच्य उपनामधारी ब्राहमण लेखक ने पंडित दामोदइर जी के वंशजों के उपयोगार्थ इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि की थी ।
ज्योतिषराय जी श्री पांचश्री जीची पण्डित दामोदरजी तस्य पुत्रचीकंवरजी दुर्लभरायजी ज्योग्य पठनार्थ श्रुभमभवतु लिखिं पं; मथनानाथ उदीच्यसोपरना । इ;अ;ल;सं;सूची ग्रन्थ खण्उ व्दितीय प्र;217
सूची पत्र के खण्ड त्रतीय में मात्र एक ही औदीच्य ब्राहमण का संकेत प्राप्त होता है। यह संकेत धर्मशास्त्र से संबंध्द आचार्य श्रीधरक्रत स्म्रत्यर्थ सार पर विनियोजित है। यह पाण्डुलिपि 480 वर्ष प्राचीन है और यहां यह भी विदित होता है कि रेवातीर निवासी ओडाकाल दास के अध्ययन हेतु लिखा गया था । पाण्डुलिपिकर्ता शनिवार एवं स्थान के रून में शुक्लतीर्थ काक भी उल्लेखकरता है । शुक्लतीर्थ कदाचित गुजरात प्रान्त का सूरत या सिध्दपुर नगर हो सकता है । यहां लिपिकर्ता अपने उपनाम कका प्रयोग भी करता है।
संवत 1568 वर्षे फाल्गुनमासे क्रष्णपक्षेचतुर्थ शनै लिखितं श्री शुक्लतीर्थे उदीच्यजाति ठाकर
राजऋषिशर्मणालिखितं इद्र पुस्तकं।। श्रीरेवातीरे रूंढवास्तव्य श्री नालज्ञातीय ओडाकलदासमध्ययनार्थे।।
इ;आ;ला सं; सूची ग्रन्थि खण्ड त्रतीय प्र 471 ।
अग्रिम संदर्भ में भामती का जो ब्रहमसूत्र शंकर भाष्य की व्याख्या है सह त्रतीय अध्याय मा9 की पाण्डुलिपि है। इसके निर्माता औदीच्य ब्राहमण श्री नरहरि के पुत्र पुरूषोत्तम है। यह सूचीग्रन्थ के चतुर्थ खण्ड में संकेतित है। इसका एक लेख संवत 1642 में वैशाख मास शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि एवं सोमवार को पूर्ण किया गया था ।
संवत 1642 वरषे वैईशाष श्रुदि एकादश तिथोससौमेंअध्येह काछैइ्रवास्तत्यं उदीच्यज्ञाती यमहे श्री नरहरिसुतपूरूषोत्तमक्येन लिखितं इ;बा;ल;सं; सूची ग्रन्थ खण्ड चतुर्थ प्र 721 ।।
चतुर्थ खण्ड में ही दर्शनशास्त्र के ग्रन्थ सकल वेदोपनिषत्ससारोपदेश सहस्त्री जो शंकराचार्य की क्रति है कि पाण्डुलिपि औदीच्यब्राहमण जाति के जोशी विश्वनाथ व्दारा की गई थी ऐसा संदर्भ प्राप्त है।
इ;आ;ला;सं;सूची ग्रन्थ खण्ड चतुर्थ प्र; 731 ।
सुची ग्रन्थ के पांचवे खण्ड में मात्र एक ही औदीच्य ब्राहमण संदर्भ प्राप्त होता है । यह संदर्भ वास्तुशास्त्र के भोजविरचित राजवल्लभ मण्डल ग्रन्थ की प्रतिलिपि में सुरक्षित है। प्रतिलिपिकर्ता ने उल्लेख किया है कि कवह नवीनापुर निवासी है। उसका उपनाम दवे है। श्री दवे ने इस प्रतिलिपि को संवत 1866 मास भाद्रपद,पद्वक्ष शुक्ल,तिथि पंचमी एवं वार गुरू के दिन परिपूर्ण की । भाद्रपद माह की शुक्ल पंचमी भारतीय पंचाग में ऋषि पंचमी के रूप में प्रसिध्द है । संभवत लिपिकार ने ऋषियों की अर्चना तिथि को इसे समाप्त कर ऋषि ऋण से उऋण होने का उपक्रम किया हो । इ;आ;ला;सं; सूची ग्रन्थ खण्ड पंचम प्र; 1136
सूची ग्रन्थ का छठे खण्ड में औदीच्य संदर्भ अप्राप्त है।
सातवे खण्ड में चार औदीच्य ब्राहमण्उ संकेत प्राप्त हुए हैं। इनमें से तीन पाण्डु ग्रन्थ एक ही परिवार व्दारा निर्मित है । उक्त तीनों पाण्डुलिपियां साहित्य ग्रन्थों की है । इनमें प्रथम कालिदास क्रत रघुवंश पर मोलाचल मल्लिनाथ सूरी क्रत संजीवन टीका है। दूसरे ग्रन्थ में इसी लेखक व्दारा कुमार संभव के एक से सात पर्यन्त मूल सर्गो के साथ साथ संजीवनी का लेखन किया है। त्रतीय ग्रन्थ महाकवि भारवि प्रणीत किरातर्जुनीयम है। इसमें लेखक ने मूल ग्रन्थ के ससाथ मल्लिनाथ क्रत घण्टापथ व्याख्या की प्रतिलिपि की है। तीनों ही पुष्पिकाऐं जो लेखक का विस्त्रत परिचय प्रस्तु त करती है । इ;आ;ला;सं;सूची खण्ड सप्तम प्र 1416 , प्र; 1419, एवं प्र; 1430 ।
उपर्युक्त औदीच्य ब्राहमण दवे परिवार के एक ही लिपिकर्ता के तीनों पाण्डु ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि कदाचित वे सशुल्क लेखन का कार्य करते रहे हों । लेखक ने अपना ग्रहनगर लिखा है वह संभवत राजकोट गुजरात हो सकता है क्योकि औदीच्य ब्राहमणों का गुजरात से संबंध सर्वविदित है।
सातवे खण्ड में अन्तिम औदीच्य उल्लेख रत्नकलाचरित है जो कि लोलिम्बराज की क्रति है। की प्रतिलिपि पर उपलब्ध होता है । यह 9 पत्रों का ग्रन्थ है। आकार 9 1/2 4 इंच है। उत्तम देवनागरी लिपि में इसे लिपिबध्द किया गया है । प्रत्येक पत्र में 9 पक्तियां है। प्रतिलिपिकर्ता ने औदीच्य जाति का तो यहां उल्लेख किया ही है साथ ही औदीच्य ब्राहमणों की व्रध्द शाखा से अपना संबंध दर्शाया है। वह अपना उपनाम रावल लिखता है। इ;आ;ला; सं; सूची ग्रन्थ खण्ड सात प्र 1491 ।
इस प्रकार उक्त सातों खण्डो में उपलब्ध औदीच्य बा्हमणों के संदर्भों के परिशीलन से यह ज्ञात होता है कि ब्राहमणों में हमारी उपजातति अत्यन्त मेधावी एवं प्राच्यग्रन्थों की पाण्डुलिपियां बनाने में अत्यन्त निष्णात थी । हमारे पूर्वज अपनी जातति को सम्मान देते थे तथा उसे प्रकट करने में गौरव का अनुभव करते थे । हमें यह भी विदित होता है कि उपका अध्ययन एवं लेखन क्षेत्र व्यापक था । वे वेद वेदांग,दर्शन,कर्मकाण्ड, वास्तुकला,साहित्य आदि विषयों के विव्दान रहे है। उन्होने प्राचीन ग्रन्थों की प्रतियां निर्मित कर भारतीय साहित्य के संरक्षण में अतिशय महत्वपूर्ण योगदान दिया है क्योकि मूल ग्रन्थों की प्रतियां निर्मित करना भी तत्कालिन परिस्थितियों में विध्या विस्तार की द्रष्टि से अति महत्वपूर्ण कार्य था। ऐसे ही अनुष्ठानों ने भारतीय विध्या के ग्रन्थों के अस्तित्व को बनाये रखा है।
समाज शास्त्रीय द्रष्टि से विचार किया जाय तो यह तत्व भी उल्लेखनीय होगा कि ब्राहमणों में हमारी उपजाति औदीच्य ऐतिहासिक अस्तित्व रखती है। अनेक पाण्डुलिपियों ने 400/500 वर्ष पूर्व के संकेत प्रस्तुत किए हैं । इसका तात्पर्य यह है कि हमारी औदीच्य संज्ञा सहस्त्रों वर्षों के इतिहास की साक्षी है। संकलित ।
औदिच्य ब्राह्मणों की इतिहास और संरचना
औदिच्य ब्राह्मणों के गुजरात राज्य में स्थित हैं. वर्ष 950 ईस्वी के आसपास से ही औदिच्य ब्राह्मणों के रूप में मूल के उनके इतिहास का पता लगाया जा सकता है. वर्ष 942 ईस्वी में हुई थी. कि मूलराज सोलंकी अपने मामा सामंत सिंह चावड़ा , तो सत्तारूढ़ राजा की हत्या करने के बाद अन्हीलपुर पतन के सिंहासन पर कब्जा कर लिया. पुराने दिनों में वहाँ दो अपराधों थे, सबसे खराब अपराधों माना जाता है. इन अपराधों (1) एक शासक राजा की हत्या कर रहे थे और (2) एक पुजारी की हत्या. भारत में और इन अपराधों के लिए दंड प्रायश्चित जल रहा है या डूब द्वारा आत्मदाह था.
इसलिए स्वाभाविक रूप से मूलराज राज राजा की हत्या, हालांकि यह सही और अपरिहार्य सबसे आवश्यक के रूप में प्रचारित किया गया था राज्य को बचाने के लिए, उनके समर्थकों द्वारा राज्य श्रीमाली ब्राह्मण पुजारियों से कोई खरीदार नहीं मिला. इन याजकों चावड़ा राजाओं के साथ साथ गुजरात से श्रीमाली / भिन्न्मल राजस्थान की वर्तमान दिन राज्य के दक्षिणी भाग में स्थित है, आया था. श्रीमाली ब्राह्मण राज्य की आधिकारिक याजक थे. उनके कार्य धर्म और न्याय शामिल है. वे मूलराज आशीर्वाद दे और उसे राजा के रूप में घोषित करना मना कर दिया. राजी, काजोलिंग , कॉक्सिंग , या धमकी का कोई राशि उन ब्राह्मणों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. यदि याजक उसे एक राजा के रूप में मुकुटकधारी मूलराज रुद्र यज्ञ प्रदर्शन और भी रुद्रमहल का निर्माण करने के लिए तैयार था, प्रायश्चित के रूप में रुद्र (शिव) का एक विशाल मंदिर है.लेकिन याजकों हिलता नहीं है.
यह भी मूलराज के लिए महत्वपूर्ण था एक के बाद से राजा के रूप में मुकुटकधारी, अगर सिंहासन एक लंबे समय के लिए खाली छोड़ दिया गया था वहाँ एक अराजकता होगा. कई चाव्दास पहले से ही सिंहासन के लिए उनके दावे दबाने शुरू किया था. राज्य की सीमा पर दुश्मन गुजरात की विजय के लिए तैयारी शुरू की थी. अगर राज्य को बनाए रखा जा रहा था एक तत्काल कार्रवाई की जरूरत थी. लेकिन परिस्थितियों समझाने के बाद भी श्रीमाली याजकों, व्यावहारिक नहीं है मूलराज कारणों और क्रेडेंशियल्स स्वीकार करने में एकमत थे. मूलराज करने के लिए इस स्थिति पर काबू पाने के लिए एक और रास्ता खोजने के लिए किया था.
मूलराज और उनके मंत्री माधव एक शानदार विचार पर आया था. चावड़ा राजाओं श्रीमाली और उनके याजक से आया था श्रीमाली ब्राह्मण थे. मूलराज (कनोज ) कान्यकुब्ज गंगा और यमुना नदियों की उपजाऊ भूमि में स्थित से हुई थी, यदि ऐसा है तो उस क्षेत्र से याजकों के लिए आते हैं और एक राजा के रूप में गद्दी पर बैठाना मूलराज , रुद्र यज्ञ प्रदर्शन और राज्य के याजकों, दो पक्षियों के रूप में गुजरात में रहने के लिए राजी हो सकता है एक ही पत्थर से मारा जा सकता है. पहले मूलराज अब एक वैध राजा होगा और दूसरी श्रीमाली ब्राह्मणों के प्रभाव और कटौती भी निरस्त किया जाएगा. यह बड़ी संख्या में सीखा और बुद्धिमान ब्राह्मण परिवारों के लिए आयात और आकर्षण है, उन्हें भूमि और आधिकारिक राज्य याजकों के रूप में पदों की पेशकश करने का फैसला किया गया था. वे तुरंत काम करने के लिए सेट. माधव के नेतृत्व में कई मंत्रियों ने विभिन्न नदियों गंगा और यमुना के मैदानों में जहाँ वहाँ थे शिक्षित और प्रमुख ब्राह्मण जो स्थायी समाधान के लिए गुजरात आने के लिए राजी हो सकता है में महत्वपूर्ण शहरों और क्षेत्रों को भेजा गया था. एक साजिश से बचने के लिए, वे भी यह सुनिश्चित किया कि ब्राह्मणों और विभिन्न स्थानों से एक ही स्थान से नहीं आया.
जब 1037 ब्राह्मण परिवारों का यह बड़ा कारवां सिद्धपुर पाटन पहुँचे, वे राजा की तरह राजा और अपने लोगों के द्वारा प्राप्त किया गया. उन दिनों में, भारत में धीरे - धीरे ब्राह्मणों अपने प्रवास के या मूल की जगह द्वारा में जाना शुरू किया था, और अतीत में के रूप में गोत्र के द्वारा नहीं. . तो विभिन्न गोत्र के ब्राह्मणों के इस बड़े समूह आधिकारिक तौर पर नामित किया गया था औदुच्य ब्रह्मिन्सिं संस्कृत, औदिच्य उत्तरी दिशा से मतलब है. गोत्र, मूल और स्थानों के लिए राजा मूलराज सोलंकी द्वारा श्री स्थल, बाद में सिद्धपुर पतन के रूप में जाना जाता है पर उनके आने के बाद परिवारों ब्राह्मण दान की जगह है, की सूची निम्नानुसार है.
परिवारों के स्थानों के मूल रहने के परिवारों प्लेस की संख्या गोत्र दान
• नदियों के 105 विमान गंगा और सीहोर और सिद्धपुर क्षेत्रों से यमुना: जमदग्नि , वत्सस , भार्गव (भृगु ), द्रोण दालभ्य , मंडव्य, मौनश , गंगायन , शान्कृति , पुलत्स्य , वशीस्था , ऊप्मनिउ है,
• 100 छुवन आश्रम कुल उद्वाहक , पाराशर, लौध्क्षी , कश्यप,
• 100 सरियु नदी भारद्वाज दो, कौडिन्य , गर्ग, विश्वामित्र विमानों,
• 100 कान्यकुब्ज सौ कौशिक, इन्द्रकौशिक , शान्ताताप , अत्री,
• 100 हरिद्वार क्षेत्र औदालक , क्रुश्नात्री , श्वेतात्री , चंद्रात्री के
• 100 नैमशारान्य सत्तर अत्रिकह्शिक , गौतम, औताथ्य , कृत्सस , आंगीराश
• 200 कुरुक्षेत्र चार शांडिल्य, गौभिल , पिप्लाद , अगत्स्य
• 132 पुष्कर क्षेत्र (अगत्स्य , महेंद्र) के गांवों नहीं औदिच्च्यास के में
सिद्धपुर पाटन में आगमन पर, वे श्रीमाली ब्राह्मण (पूर्व राज्य गुरु) जो मूलराज राज्याभिषेक का बहिष्कार करने के लिए उनके कारण बताया द्वारा दौरा किया गया. 1037 परिवारों के बाहर,
37 परिवारों श्रीमाली ब्राह्मणों के तर्क में सच्चाई देखा और राजा की योजनाओं में भाग लेने का फैसला किया. वे एक समूह में चला गया और अपने निर्णय और मूलराज के कारण सूचित. चूंकि वे एक समूह के बारे में चला गया वे तोलाकिया औदिच्यब्रह्मिंस के रूप में जाने जाते थे.
आराम करने के लिए औदिच्य जप ब्राह्मण के रूप में जाना जाने लगा, क्योंकि वे संख्या में 1000 थे.
यह केवल लालच इन 1000 ब्राह्मण परिवारों का प्रभुत्व है लेकिन दूसरी तरफ यानी के राजा मूलराज सोलंकी के दृश्य पर, ब्राह्मणों को समझाया कि प्रकट हो सकता है, और भी हो सकता है पर देखा नहीं होना चाहिए.
एक मजबूत राज्य को बनाए रखने और धर्म और के रूप में के रूप में अच्छी तरह से व्यापार और राष्ट्र की समृद्धि सभ्यता को स्थिर करने के लिए जरूरी था. यह एक सर्वविदित तथ्य है कि गुलामी के तहत, धर्म, सभ्यता, समृद्धि गिरावट, राष्ट्र गरीब और एक उपहास का पात्र है. इतिहास यह साबित करने के लिए सोलंकी लगभग तीन सौ वर्षों के लिए फला राज्य के रूप में सच हो सकता है. गुजरात में हिंदू राजाओं के आखिरी और अच्छी तरह से लड़ा गढ़ था, 1297 में भारत के इस्लामी हमले के खिलाफ गिर. दिल्ली इस्लामी फ़ौज, न केवल सोलंकी और औदिच्य ब्राह्मणों की है लेकिन पूरे गुजरात की समृद्धि से विजय के साथ खो गया था.
शायद यह इस मोड़ पर जगह से बाहर नहीं हो शब्द गोत्र जो मुख्य रूप से किया गया है औदिच्य ब्राह्मणों के ऊपर के इतिहास में इस्तेमाल किया समझाने. वेद धर्म के बारे में सबसे पुराना ज्ञात संधि माना जाता है. हिंदू धर्म का मानना है कि भले ही शाश्वत सत्य है, वहाँ कई मायनों में यह व्याख्या की जा सकती हैं. अति प्राचीन काल से, सात रुशिस के उनके व्याख्या संस्करण के और वेद बारे में समझ डाल दिया है.
इन रुशिस का नाम जमदग्नि , गौतम, अत्री, विश्वामित्र , वशिष्ठ, और भारद्वाज और कश्यप है. वे सप्त्रशिस के रूप में जाना जाता है. अगत्स्य 8 रूशी भी एक रूशी जो वेदों की समझ में योगदान दिया है के रूप में स्वीकार किया जाता है.
प्रत्येक रूशी सुप्रीम तारीफ कर रही आदि होने के नाते करने के लिए वेदों के अपने संस्करण है, उनके अर्थ, परम शांति (निर्वाण) और भगवान के बारे में ज्ञान प्राप्त करने की विधा के बारे में अनुष्ठान, श्लोकस (भजन) प्रत्येक रूशी कार्यप्रणाली के अनुयायियों के समूह था कि गोत्र से जाना जाता है जो कि रूशी और या उसकी महत्वपूर्ण चेलों के नाम में सामान्य रूप से है. यह निश्चित रूप से नीचे अनुयायियों के ज्ञान के क्षितिज संकीर्ण जाता है.
आभार: डा. र र पुरोहित MyHeritage वेब साइट से लिया गया
महत्वपूर्ण: वापस जमीन औदिच्य तोलक
: अजय हर्षद राय व्यास द्वारा पोस्ट
ऐतिहासिक रिकॉर्ड के अनुसार, औदिच्य ब्राह्मणों 962 और हिंदू राजा मूलराज के सोलंकी (961-996 ई.), अन्हीलपुर पाटन के शासक द्वारा 965 ई. के बीच गुजरात के लिए लाया गया. संस्कृत में 'औदीच ' उत्तर 'का मतलब है. तो उत्तरी भारत से राजा मूलराज द्वारा आमंत्रित ब्राह्मण 'के रूप में औदिच्य ब्राह्मण' में जाना जाने लगा.
उत्तरी भारत के विभिन्न क्षेत्रों से औदिच्य ब्रह्म आमंत्रित परिवारों प्रयाग क्षेत्र से 105 के शामिल. कन्नौज से ऋषि चाव्यां , 100 नदी सरयू बैंक से परिवारों के आश्रम से 100, 200, 100 काशी क्षेत्र 100 'हरिद्वार': 'कुरुक्षेत्र' से 100: 100 'नैमिशारान्य से, और 132 पुष्कर क्षेत्र से.
इस प्रकार, सीखा ब्राह्मणों के 1037 परिवारों की कुल रुद्र महालय और रीडर यज्ञ में भागीदारी प्रिंस मूलराज सोलंकी द्वारा प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया गया. यह कहा जाता है कि 1000 औदिच्य ब्रह्म का एक समूह उपहार से राजा मूलराज और उनके वंशज कर रहे हैं औदिच्य शास्त्र ब्राह्मणों के रूप में जाना जाता द्वारा की पेशकश स्वीकार किए जाते हैं.
37 ब्राह्मणों के शेष समूह अलग खड़ा हुआ और राजा के उपहार स्वीकार करने से इनकार कर दिया, लेकिन इसके बजाय राजा यज्ञ से उनके वरदान भेंट की.इन ब्राह्मणों तोलाकिया के के रूप में जाने जाते थे - या तोलक के रूप में वे एक समूह का गठन किया था और जो राजा उपहार स्वीकार कर लिया था ब्राह्मणों के बाकी से अलग खड़ा था.
आज भी, औदिच्य तोलक ब्राह्मणों किसी भी शरीर से कोई उपहार नहीं स्वीकार करते. राजा मूलराज और उनके मंत्रियों को विभिन्न समूहों में उन्हें उनकी योग्यता और उनके वैदिक ज्ञान के अनुसार विभाजित.
गोत्र '. 'गोत्र' (वर्णमाला क्रम में) हैं: अन्फिरस , आरतियो , औदालाल्स , भारद्वाज, भार्गव, चंदात्री , दालभ्य , द्रोण , गभिल , गंगायन , गर्ग , गौतम, हिर्न्यागार्भा , कश्यप, कौडिन्य , कौशिक, क्रुश्नात्री , कुत्सास , लौगाशी , मंदाक्य , मुनास , पराशस , पौलस्त्य , पिप्पलाद , संक्रत्रुत्य , श्रन्क्रुइत , शौनक , शांडिल्य, स्वेतात्री , उदालक , उद्वाह औद्वः , उपमन्यु , वशिष्ठ, वत्स.
साठ से अधिक अलग औदिच्य ब्राह्मण के बीच 'अटकस (उपनाम) हैं. इन अटक नाम जो उपनाम के रूप में उपयोग किया जाता है उनके और प्रवीणता के पेशे क्षेत्र के आधार पर कर रहे हैं. उन के बीच में सबसे आम डेव, पंड्या, ठाकरे, उपाध्ह्याया , त्रिवेदी, जानी, पंडित, आचार्य, रावल, जोशी आदि व्यास नायाब थे. इससे पहले केवल 16 जाति के नाम थे, लेकिन समय के पाठ्यक्रम में संख्या 60 से ऊपर चला गया.
ब्राह्मण जो अध्ययन किया है और अन्य ब्राह्मण को वेद पढ़ाया जाता आचार्य के रूप में जाने जाते थे. ब्राह्मण जो अध्ययन और विभिन्न क्षेत्रों में वेद सिखाना असुपध्याया जाना जाता है के आते हैं, और ओझा, पंडित, पाठक और पांडा के रूप में भी जाना जाता है. प्रधानों और राजकुमारियों के विवाह में राजपूत राजाओं की सेवा ब्राह्मण पुरोहितों कॉल उनके मूल उपनाम की चाहे थे. पांचाल प्रदेश में रहने वाले ब्राह्मण 'पंचोली' कहा जाता था, जबकि जो अच्छी तरह से ज्योतिष में निपुण थे जोशी के रूप में जाना जाता है. ठाकर ब्राह्मण उन जो अपने मूल व्यवसाय उनके गांवों का प्रबंधन दिया गया. ब्राह्मण जो सभी चार वेदों के ज्ञान के पास चतुर्वेदी के रूप में जाने जाते थे, जो तीन वेद का ज्ञान पास त्रिवेदी या त्रिपाठी हो जाते हैं और दो वेदों के साथ ही उन परिचित द्विवेदी और डेव कहा जाता है. लिपिक काम कर ब्राह्मण मेहता कहा जाता था और जो यज्ञ की तैयारी बनाने में विशेषज्ञ थे याग्निक कहा जाता था. सब वेदों और पुराणों का ज्ञान रखने ब्राह्मण व्यास बुलाया गया. एक समझ सकते हैं कि समुदाय में अपनी स्थिति की स्वयं की धारणा वर्ण पदानुक्रम में सर्वोच्च स्थान पर कब्जा करने में गर्व पर है.
सहस्रस उन के बीच में दो प्रभाग के उप जो विशुद्ध रूप से भौगोलिक यानी, सिहोरासंद श्रिध्पुरिअस संबंधित शहरों के नाम है. दस अन्य उप जातियों या होने औदिच्य ब्राह्मणों के साथ उत्पन्न जातियों (देसाई दंधाव्य औदिच्य ब्राह्मण और उनके बीच घंगोली औदिच्य के रूप में उल्लेख कर रहे हैं.)
औदिच्य ब्राह्मण एक विस्तृत वितरण किया है लेकिन उनके मुख्य एकाग्रता अहमदाबाद, मेहसाणा, खेड़ा, भरूच, सुरेंद्रनगर, साबरकांठा, और पंचेमहल जिलों में है.
कई औदिच्य ब्राह्मण परिवारों को नौकरियों और अन्य जीवंत हुड की खोज में राजस्थान में चले गए. उदयपुर, जयपुर और कोटा, राजस्थान में पूर्व रियासतों, गुजरात के बाहर पसंदीदा स्थानों थे. उदयपुर में, बीजी राज की ब्रह्मपुरी , अधिक लोकप्रिय छोटी ब्रह्मपुरी के रूप में जाना जाता है के रूप में कहा जाता है क्षेत्र का एक बड़ा एकाग्रता है औदिच्य ब्रह्मिंस .थे शामिल याग्निक जानी [], दवे, व्यास, दीक्षित शुक्ला, और मेहता परिवारों. पूर्व में उनमें से सबसे मंदिर सेवाओं में लगे हुए थे.
केवल कुछ विशेष रूप से परिवारों याग्निक और व्यास परिवार के सदस्यों को राज्य सेर्विसास राज्यसभा सलाहकार में थे. समुदाय स्वतंत्रता सेनानियों अपने सदस्यों अर्थात के रूप में भी होने का गर्व है. श्री मनोहरलाल गणपतलाल याग्निक और श्री इच्छा शंकर शर्मा. आज, उच्च शिक्षा के स्तर पर चला गया है. विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, डॉक्टरों, इंजीनियरों और युवा पीढ़ी विश्व तकनीकी में एक जगह लग रहा है.
औदिच्य ब्राहमण शुद्ध शाकाहारी हैं. वे अपने मुख्य भोजन के रूप में चावल, गेहूं, बाजरा (बाजरा) और ज्वार का उपयोग करें. वे दालों तुवर जिनमें से सबसे अधिक लोकप्रिय है की एक विस्तृत विविधता ले. जड़ों और तुबेर्स सहित सभी स्थानीय रूप से उपलब्ध सब्जियों को अपने आहार में एक जगह जो भी दूध और इसके उत्पादों में शामिल हैं. उत्सव और औपचारिक अवसरों पर मिठाई की एक किस्म, लाडवा, दूध (चावल दूध में उबला हुआ) पाक स्वतः, शुद्ध फरसान (तली हुई तैयारी) तैयार कर रहे हैं.
औदिच्य ब्राह्मण समुदाय और गोत्र स्तर पर स्तर विजातीय विवाह पर सगोत्र विवाह प्रथाओं. समुदाय उन सिद्धपुर करने के लिए उच्चतम स्थान पर कब्जा, ज़लावाद क्षेत्र के लोगों द्वारा पीछा के साथ एक आंतरिक सामाजिक पदानुक्रम द्वारा विशेषता है, और नीचे उन्हें उन सीहोर - कठिअवाद क्षेत्र से संबंधित हैं. पूर्व में, इन वर्गों संबंधों को शुरू किया था, लेकिन दुल्हन का आदान - प्रदान नहीं. अब इन प्रतिबंधों मनाया नहीं कर रहे हैं, लेकिन वे सपिन्दा और प्रवर विजातीय विवाह का पालन करें.
मोनोगमी आदर्श है. विधवा विवाह वर्जित है. शादी के लिए लड़कियों के लिए सामान्य उम्र 21-28 साल के लड़कों से पर्वतमाला के लिए 18 से 25 वर्ष और शादी की उम्र के बीच था. बेटी को 'स्त्रीधन ' के रूप में उपहार के रूप में दहेज दिया जाता है. जूनियर सोरोराते व्यवहार में है. शादी गठजोड़ को बड़े पैमाने पर वार्ता से बसे हुए हैं.
महिलाओं के लिए शादी की प्रतीक 'मंगलसूत्र', तो एरिंग्स और माथे पर बिंदी के पहने शामिल हैं. निवास का नियम पर्त्रिलोकल है हालांकि नेओलोकल भी मौजूद है. प्रथानुसार तलाक है, लेकिन नहीं अनुमेय एक कानून अदालतों के माध्यम से तलाक प्राप्त कर सकते हैं. तलाक के लिए कारण बरेंनेस अपसमायोजन, और पुरानी बीमारी शामिल हैं. तलाक के मामले में, बच्चों को आमतौर पर पिता की जिम्मेदारी बन गया है.
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